Hindi fiction: An excerpt from ‘Kaans’, by Bhagwandass Morwal

A novel about how India’s customary law disenfranchises the most vulnerable in the community.

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भगवानदास मोरवाल के उपन्यास काँस का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

लगता है आज सिविल जज इस केस का फ़ैसला सुना ही देगा, ऐसा सारे वकीलों से लेकर वकील नेमचन्द गुप्ता, उमर खाँ, मौज खाँ, उनके साथ आये सरपंच अजमत और नसरू का मानना था। इसलिए सबका ध्यान इस जिज्ञासा को लेकर है कि जज आख़िर इसमें क्या फ़ैसला देगा दादा खैराती की पन्द्रह एकड़ चार बिसवा का मालिकाना हक़ किसे मिलेगा? खैराती परिवार की एकमात्र स्त्री वारिस चाँदबी के नाम उसकी ताई हसनबी द्वारा पंजीकृत किया हिबानामा वैध बना रहेगा, अथवा खैराती के भाई के बेटे उमर खाँ की अपील पर दीवानी अदालत का न्यायाधीश रिवाज़े-आम के आधार पर उमर खाँ के दावे को सही मानते हुए हिबानामा को ख़ारिज करने का आदेश पारित करता है?

जज के आने और अदालत की कार्यवाही शुरू होने से पहले कोर्ट के अन्दर और गलियारे में तरह-तरह के अनुमान-अंदाज़े लगने शुरू हो गये। कोर्ट रूम में पहले से तैयार वादी-प्रतिवादी अर्थात दोनों पक्षों के वकीलों की नज़र जज के बग़ल में बैठे पेशकार के सामने रखी फ़ाइलों के ढेर पर टिकी हुई है। कानों के पर्दों को एकदम ढीला छोड़ा हुआ है। एक ख़ास किस्म की पोशाक पहने और पेशकार से कुछ दूरी पर उसके निर्देश...

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