Translated Hindi fiction: An excerpt from ‘Neel Chhavi’, by Mahasweta Devi

When modernity and traditions clash in our everyday lives.

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महाश्वेता देवी के उपन्यास नील छवि, अनुवाद डॉ. माहेश्वर, का एक अंश, राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

मीट रोल की दुकान में लाल बल्ब जल रहा था। दीवारों पर गुलाब के गुच्छों के बीच ताजमहल के चित्र वाले वाल पेपर लगे हुए थे। केबिन नहीं थे। सब कुछ खुला हुआ था। लगातार कैसेट का गाना चल रहा था। प्रत्येक टेबल पर प्लास्टिक के फूल थे और काँच के नीचे विभिन्न जानवरों और उनके बच्चों की तस्वीरें थीं।

काउंटर के पीछे बैठे सोहराब के बाल मेहँदी लगाने से लाल हो रहे थे, आँखों के चारों ओर झुर्रियाँ थीं। मूँछें खूब काली थीं, जिन्हें देखकर यह नहीं लगता था कि सोहराब की इतनी उम्र हो गई है।

“क्यों सोहराब! पहचान रहे हो?”

सोहराब ने एक पल गौर से देखा फिर बोला, “हाँ बाबूजी, पहचानूँगा क्यों नहीं? बहुत दिन हो गए आपको देखे,” फिर एक पल अभ्र के चेहरे को गौर से देखने के बाद सोहराब ने दोबारा कहा, “आपका चेहरा देखकर लगता है कि आपके साथ बहुत बड़ा दगा हुआ है। बहुत बड़ी चोट खाई है आपने।”

“नहीं सोहराब, उम्र हो रही है।”

“कितनी उम्र है आपकी?”

“चालीस साल।”

“मेरी उम्र 65 है।”

“मैं एक फोन करूँगा।”

“तो करिये न।”

“यहाँ नहीं।”

“तो अन्दर चलिए, अरे साबिर! काउंटर पर आ जा। बाबूजी, इसे देखते हैं, यह हमारा छोटा लड़का है।”

“अरे! यह तो बहुत बड़ा हो गया!”

“होगा नहीं? आप कितने दिनों...

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